शर्मिंदा तो होना ही था
आपको तकलीफ तो नहीं हुई.ना न् हिचकते हुए मैने कहा..ठीक है कोई बात नहीं मुझे लगा मेरे जूते आपके पैरो पर पड़ गये कहते हुए बुजुर्ग चचा मेरी सीट के पास गैलरी मे लोेहे की राड को पकड़ कर ठसाठस भरी बस मे जैसे तैसे खडे़े हो गये, और मैं.....................................
मैं अपनी सीट पर बैठा बैठा सोचने लगा, अभी थोड़ी देर पहले जब यह बुजुर्ग सज्जन बस की गेट से दाखिल हो रहे थे,, तो मैने क्या सोचा इनको देख कर.......चुगनी सी दाढी दरमिान कद चुस्त कु्र्ता पैजामा जैसे किसी फिल्मी किरदार के किसी मशूका का खड्डूस बाप....और तुर्रा यह कि सीधे मेरी सीट की ओर ही आ गयें इस ठसाठस भरी बस में..तगड़ी वाली खीझ हुई थी मुझे इनकी शख्सियत पर लेकिन....
जैसे ही नजदीक आये और इतने मीठे लहजे में मेरी तकलीफ को जानने की कोशिश की...तो मै लजवाब हो गया जबकि मै भी बेपरवाही में भरी बस की गैलरी में जबरीया अपना पैर फैलायें था.
तो शर्मिंदा तो होना ही था.
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